कल झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का बलिदान दिवस था , मैं कोटा के जिस जे०डी०बी०गर्ल्स कॉलेज में पढ़ी हूँ,वहाँ लक्ष्मी बाई की प्रतिमा स्थापित है और हर वर्ष इस दिन उह्नें नमन कर लिया जाता है ।
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क्या ये लोग हमारे इस तरह के तथाकथित नमन के मोहताज हैं ?
अरे,ये तो वो लोग थे जिन्होनें सिर्फ और सिर्फ अपने वतन से और अपने वतन के लोगों से प्यार किया,लेकिन अपनी कुर्बानी देकर जब ये आज़ाद गुलिस्ताँ उन्होंने छोड़ा होगा तब उन्होंने तो कल्पना भी नहीं की होगी कि आने वाली पीढ़ी को तो ख़ुद से भी प्यार करना नहीं आयेगा ,वतन से क्या प्यार करेंगे ।
स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों के प्रति ऐसी अनदेखी और बेरुखी दिल को बहुत ठेस पहुँचाती है,इसका कारण ये है कि मेरे पिता,दादा और परदादा क्रान्तिकारी थे और दादाजी श्री हनुमान प्रसाद सक्सेना"दिनेश" उस समय हिन्दी साहित्य का प्रचार भी करते थे,पिता श्री रमेश"अनिल" भी क्रान्तिकारी गतिविधियों के अलावा कवि और पत्रकार भी थे ,उनसे हमें राष्ट्र-प्रेम के संस्कार मिले ।
मैंने अपने दादाजी को तो नही देखा,लेकिन अपने पिता को अपने सामने दुनिया छोड़ते देखा किन्तु आज भी मैं अपने पिता-दादा के नाम के आगे स्वर्गीय शब्द का इस्तेमाल नहीं करती,क्योंकि मेरा मानना है कि आज भी वे अपने संस्कारों के रूप में हमारे भीतर जीवित हैं,मेरे पापा कहा करते थे -
'ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है,
मुर्दादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं '।
ज़ी०टी०वी० को धन्यवाद कि उन्होंने अपनी लीक से हटकर 'झाँसी की रानी' बनाया ।
देश के स्वाधीनता संग्राम में अपनी आहुति देने वाले हर सैनानी के चरणों में शीश झुका कर शत-शत नमन !
Thursday, June 17, 2010
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